ना बिमारी का पता लगा ना दवा ही मिली


गुफ्तगू ने समाचार के माध्यम से हिसार में जाट आरक्षण के नाम पर जो कुछ घटित हुआ उसकी विस्तार से जानकारी आपको दी. लेकिन कुछ जानकारिया अभी आप तक पहुंचानी बाकी रह गई. यह वो जानकारिय थी जो समाचारों से उठ कर जनता के लिए गुफ्तगू बन गई. यही गुफ्तगू आप तक पहुंचा रहा हूँ. शायद आपको समाचार का वो पहलू समझ में आ सके जिसके लिए गुफ्तगू प्रयासरत्त है. अब तक की सभी गुफ्तगू में आपको बताया गया की कैसे दो नेताओ ने आरक्षण की आग को हवा दी. पुलिस फायरिंग में एक छात्र की मौत के पश्चात किस तरह से ग्रामीणों ने आगजनी व् लूटपाट की वारदातों को अंजाम दिया. नेताओ ने भी अपना पक्ष रखा और हिंसा को रोकने की बजाये बयानबाजी तक ही वो कैसे सिमित रहे.
किसी को कुछ नहीं मिला और आखिरकार दोनों बाहरी नेताओ को अपनी-अपनी गाडियों से हाथ तक धोना पड़ा. शुक्र है की उन्होंने भाग कर अपनी जान तो बचा ली. लेकिन सोचने वाली बात यह है की चरम तक पहुंची हिंसा के पीछे ना बिमारी का पता लगा और ना दवा ही मिली. जी हां, दोनों जाट नेता हिंसा के पश्चात वापिस हो लिए लेकिन आरक्षण को लेकर आज भी वो चुप्पी साधे हुए है. क्यों उन्होंने उत्तरप्रदेश से आकर बिना किसी प्रदेश के नेता को साथ लिए यह मुद्दा उठाया, केंद्र से आरक्षण की मांग की बात कर बिना किसी केंद्र के प्रतिनिधि की मौजूदगी के प्रदेश सरकार से समझौता करना, क्या समझौता हुआ किसी को इसकी जानकारी नहीं होना व् प्रदेश स्तर पर जाट आरक्षण के लिए कुछ नहीं बोलना जैसी कई बाते आज जनता के लिए गुफ्तगू का सबब बन गई है.
आखिर यह जाट नेता क्या करना चाहते थे, इनका मकसद क्या था, यह जानना और समझना तो राजनितिक दलों का काम है लेकिन इससे भी बड़ी गुफ्तगू यह है की जिस आरक्षण के लिए यह लड़ाई लड़ी गई वो तो अभी तक मिला ही नहीं. फिर क्यों तो यह लड़ाई लड़ी गई और क्यों दो जानो को काल का ग्रास बनाया गया. कोई इसको राजस्थान की तर्ज पर कांग्रेस का खेल बता रहा है तो कोई इसको सत्ता से दूर इनलो का किया धरा कह रहा है. राजस्थान की तर्ज का जिक्र इसलिए किया गया क्योंकि जो किरोड़ी सिंह बैंसला भाजपा सरकार के समय गुर्जर आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे बाद में वो भाजपा में ही शामिल हो गए. इतना ही नहीं भाजपा की टिकट पर चुनाव तक उन्हें लड़ाया गया.
तो क्या यह मान ले की प्रदेश में बढ़ते इनलो के ग्राफ को देखते हुए यह भी कोई साजिश की गई है या फिर दोनों नेताओ पर किसी राजनितिक पार्टी का हाथ था. रही बात इनलो की तो गुफ्तगू यह भी है की आतंक का ऐसा तांडव रचने से कभी भी विपक्षी पार्टी को कुछ हासिल नहीं होता. अगर ऐसा होता तो दिल्ली में सीलिंग के पश्चात मची हाय-तौबा से कांग्रेस को सत्ता गवानी पड़ती और राजस्थान में भाजपा को शायद इतनी साईट भी नहीं मिलती. आरक्षण के नाम पर जो कुछ भी हुआ बहुत ही दुखद रहा लेकिन इतना जरुर है की जो दो जिन्दगिया यह दुनिया छोड़ गई उनकी पूर्ति 20 - 20 लाख रूपए से पूरी नहीं की जा सकती.

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