वक्त-वक्त की बात


- सुमन वर्मा -
 एक दंपति को पहली संतान के रूप में बेटा मिला। उनकी खुशी का ठिकाना नहीं था। दसोटन के आयोजन की तैयारियां लगभग पूरी हो चुकी थी। सब ठीक चल रहा था। लेकिन दसोटन से दो दिन पहले लडक़े को अचानक बुखार होने के कारण उसकी मृत्यु हो जाती है और खुशियां गम में तबदील हो जाती हैं। मृत्योपरांत जब उस लडक़े को उसके पिता शमशान भूमि ले जाते हैं तो उसे मिट्टी देते हुए भगवान से दुआ करते हैं कि हे भगवान आपने मुझे बेटा दिया और उसे वापिस भी ले लिया। अब मुझे बेटी ही देना  लेकिन उसे इस प्रकार वापिस न लेना। भगवान उसकी प्रार्थना सुनते हैं और दो वर्ष पश्चात उसके यहां लडक़ी का जन्म होता है। लडक़ी के माता-पिता तो बहुत खुश होते हंै लेकिन जैसे ही दादी और बुआ को पता चलता है कि लडक़ी हुई है तो वे उस लडक़ी का मुंह देखने भी नहीं आतीं और तानें देती हैं कि थाली फूटकर तो ठिकरा ही मिलता है। जब वह लडक़ी तीन वर्ष की हो जाती है तो वह पिता अपनी लडक़ी को पहले दिन स्कूल छोडऩे जा रहा होता है तभी बुआ कटुशब्दों में कहती है कि क्या इसे मैडम बनाएगा, तेरे परचे छपवा देगी ये। लेकिन वह पिता बिना किसी की परवाह किए उस लडक़ी का पालन-पोषण एक बेटे की ही तरह करते हैं। हालांकि उसकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होती फिर भी वह जैसे-तैसे करके उसकी पढ़ाई जारी रखते हैं। लडक़ी पढ़ाई में होशियार होती है इसलिए विद्यालय के प्रिंसिपल भी उसका साथ देते हैं। समय के साथ उस लडक़ी की पढ़ाई पूरी हो जाती है और वह एक अच्छी नौकरी लगकर माता-पिता के साथ अपने छोटे बहन-भाई का भी सहारा बनती है। तब एक दिन उसकी दादी और बुआ कहती हैं कि तेरी बेटी तो लडक़ी नहीं लडक़ा है। यह सुनकर वह पिता मन ही मन सोचते हैं कि वक्त-वक्त की बात है, एक दिन था जब तुम लोग ही तानें देते-देते नहीं थकती थीं और आज.........।

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