हल्का धन


बहुत दिनों के बाद आपसे मुखातिब हो रहा हूँ. ऐसा नहीं है इस बीच गुफ्तगू करने को कुछ नहीं था लेकिन भीषण गर्मी और शादियाँ इसका मुख्य कारण रही. गुफ्तगू के पाठक भी इससे निराश थे तो मेरी पत्रकार साथी सुमन वर्मा भी. वहीँ सुमन वर्मा जिन्होंने अपने मीठे-कड़वे अनुभवों पर आपसे गुफ्तगू करने का बीड़ा उठाया है. उन्होंने तो यहाँ तक सोच लिया की मुझे उनके लेख पसंद नहीं आये. क्षमा चाहूँगा आप सभी से कि इतने दिन नदारद रहा. उनके लेख और आपके बीच अब ज्यादा नहीं रहूँगा लेकिन उससे पहले चाहूँगा कि आप उनका यह लेख भी जरुर पढ़े.
मैं ऑफिस से छुट्टी कर अभी घर पहुंची ही थी कि मौसम में थोड़ी हलचल हुई। मेरे पापा जी भी घर आ गए और दोनों भाई भी टयूशन पढक़र आ गए। थोड़ी देर बाद बरसात शुरू हो गई। माँ ने सब के लिए शाम की चाय बनाई। बरसात के साथ हम सब चाय का आनन्द उठा रहे थे।  क्योंकि बरसात के साथ हवा भी चल रही थी, बिजली की तारें हिलने लगीं। मेरे घर एक सर्किट हुआ और लाईट चली गई। मेरा भाई एक दम बाहर की तरफ दौड़ा, उसे दौड़ता देख मेरी माँ जोर से चिल्लार्इं- अरे रुक, कहाँ जा रहा है? और वह रुक गया। माँ ने मेरी तरफ इशारा करते हुए कहा कि बेटी तू देख शायद बिजली की तार टूट गई है उसे टेप लगा दे। मैंने तार ठीक कर दी।। लेकिन मेरे दिमाग में एक प्रश्र उठा कि आखिर माँ ने मुझे यह काम क्यों कहा? फिर मैं यह सोच कर चुप रह गई कि शायद भाई मुझसे  छोटा है ना इसलिए। फिर भी मेरा मन नहीं माना और मैं यह सवाल माँ से किए बगैर न रह सकी। मैंने माँ से पूछा कि आप ने मुझे तार ठीक करने को क्यों कहा, मुझे भी तो करंट लग सकता था। माँ ने जवाब दिया कि बेटा, बेटियाँ हल्का धन होती हैं। मैं आज तक चाह कर भी इस जवाब को नहीं भूला पाई हूं और कभी-कभी तो सोचती हूं कि काश! मैंने यह सवाल माँ से  किया ही न होता।

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