समर्थन की चासनी में सत्ता का गुलाबजामुन


मैं बीते कुछ दिनों से बड़ी उलझन में हूँ । समझ नही पा रहा हूँ की मेरी उलझन को लेकर आपसे क्या गुफ्तगू करू । परेशानी भी ऐसी की दिख सभी को रही है लेकिन कोई कुछ नही बोल रहा । इसका कारण जो मुझे समझ में आया वो यह की किसी को तो समझ में नही आ रहा की यह क्या और क्यो हो रहा है और जिसको समझ में आ रहा है वो कुछ बोल नही रहा । कारण एक की सत्ता । भई जिसके हाथ सत्ता उससे पंगा कौन ले । लेकिन मिडिया का काम तो यही है की जनता को समय-समय पर सजग करता रहे । फिर अगर कोई नेता भी सबक ले ले तो उसकी बढाई नही तो जय राम जी की भाई । इसीलिए मैं उलझन में था । लेकिन अब लिखना शुरू कर दिया है तो इतनी गर्मी में दिल को कुछ ठंडक मिली है । बात कुछ यूँ है की मतदान होने से पहले जो कुछ हुआ वो सब ने देखा । कुर्सी की चाह में किसी ने तीसरा मोर्चा (लेफ्ट) बनाया तो किसी ने चौथा (लालू-मुलायम-पासवान) तो किसी ने अपनी खिचडी अलग (बसपा) पकाई । सभी को सत्ता की चाह ऐसी थी की कोई किसी की सुनने तक को राजी नही था । गिर-पड़ कर मतदान हो गए । उसके बाद जो समीकरणों का दौर शुरू हुआ वह भी कबीले गौर था । कुल मिला कर देश की जनता को जो नही देखना चाहिए था वो सब देखा । आखिरकार मतगणना के पश्चात् जो तस्वीर उभर कर आई सभी ने राहत की साँस ली । चाहे कोई कांग्रेस सरकार से खुश था या नही लेकिन दिल की आवाज़ यही थी की चलो सरकार तो स्थिर आई । अब चाहे महंगाई आए या कालाबाजारी बढे लेकिन रोज की कीच-कीच तो नही रहेंगी ।
अब बारी थी मोर्चो की
अब सब स्पष्ट था की कांग्रेस की सरकार बननी है । लेकिन उन नेताओ के होश फख्ता थे जिन्हें कुर्सी चाहिए थी बेचारे वो उलझन में थे की अब क्या किया जाए । कुर्सी मिलना तो दूर जनता ने तो हरा कर घास तक नही डाली । अब नेताओ की उलझन तो मेरी उलझन । सोचा था की चुनावो के बाद भरी गर्मी से कुछ निजात मिलेगी और हाथ को आराम । लेकिन हार के पश्चात् भी उनकी कुर्सी की चाह के कारण मुझे कहा आराम मिलना था । एक के बाद एक नेता पहुचने शुरू हो गए 7 रेस कोर्से । कोई यहाँ आया तो किसी ने सोनिया के दर की हाजरी मारी । कोई बयानों से चर्चा में आया तो कोई कांग्रेस की जीत की खुशी में अपने सांसदों की टोकरी भर लाया । कोई मनमोहन को अपना बड़ा भाई बता कर समर्थन दे रहा है तो कोई पुराने रिश्तो की दुहाई दे कर एक-एक राजनीति बयानों पर अपनी पैनी नजर रखने वाले इन नेताओ की हेकडी आज दूर-दूर तक कही दिखाई नही दे रही । जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, सोनिया गाँधी, राहुल गाँधी, दिग्विजय सिंह, प्रणव मुखर्जी और अनेको कांग्रेसी नेता समर्थन देने वाले नेताओ की जम कर आलोचना कर रहे है तो भी इनकी बोलती बंद है। जबकि चुनावो से पहले किसी के छोटे से बयान पर यही नेता इतना बवाल खड़ा कर रहे थे की सुनना मुश्किल हो जाता था ।
क्यो देना चाहते है समर्थन
अब मेरी उलझन यह है की जो नेता कल तक एक दुसरे की सूरत देखना पसंद नही कर रहे थे वो अब एक मंचपर कैसे खड़े हो जायेंगे । जो ख़ुद हार गया वो भी भी दे रहा है समर्थन और जिसके पास कुल 4 सांसद है वो भी जिस से नही मांग रहे वो भी लाइन में है तो जो कल तक शर्तो की झडी लगा रही थी उसने तो मनमोहन को अपना बड़ा भाई तक बोल दिया । आखिरकार 10 दिनों के हेर-फेर ऐसी क्या वजह पैदा हो गई की इन नेताओ को बिना शर्त समर्थन देना पड़ रहा है । जनसेवा का दिखावा करने वाले ये नेता क्या समर्थन के बूते राजनीति में बना रहना चाहते है या फिर कांग्रेस सरकार आने से इनको खतरा महसूस हो रहा है । या फिर जनता द्वारा घास नही डालने के बाद भी इनको कुर्सी प्यारी लग रही है ।
कही इनको यह खतरा तो नही
खतरे की बात से याद आया की भई इनमे से तो सभी को किसी न किसी से खतरा है । बात शुरू करता हूँ लालू यादव से । बिहार में उनकी पार्टी जहा हाशिये पर आ गई है वही उनके खिलाफ अनेको मामले अदालत में विचाराधीन है । अब उनको यह खतरा सता रहा है की कही नीतिश कुमार उनके लिए खतरे की घंटी न बजा दे । ऐसा ही कुछ खतरा मुलायम सिंह को भी है । उत्तरप्रदेश में मायावती सत्ता पर काबिज है । और चुनाव पूर्व आपस में इनकी नाराजगी जगजाहिर है । अगर मुलायम सिंह यूपीऐ के साथ नही जाते है तो मायावती उनको परेशानी में डाल सकती है । उधर मायावती को भी खतरा है की अगर मैंने समर्थन नही दिया तो मुलायम सिंह सोनिया गाँधी या मनमोहन सिंह को अपनी बातो की चासनी पिला कर कही उनकी सरकार न गिरवा दे । जैसा की अमरसिंह लोकसभा चुनावो से पूर्व अपने बयानों में कहते रहे थे । रही बात रामबिलास पासवान की तो यूपीऐ के साथ सत्ता में रह कर वो जमीं पाने की तलाश में है जो जनता ने उनसे इन लोकसभा चुनावो में छीन ली है ।

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1 आपकी गुफ्तगू:

Everymatter said...

bahut sundar likha aapna

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