रद्दी


एक दिन मैं अपनी सहेली नेहा के घर बैठी थी। उसके घर में सफाई चल रही थी। सफाई के दौरान नेहा की माँ कुछ रद्दी का सामान जैसे दो-चार दवाई की शीशियाँ, कुछ प्लास्टिक का टुटा-फुटा सामान कुड़े से अलग कर रही थी। उसी समय उनके एक परिचित भी वहां आ गए जो धार्मिक प्रचारक भी हैं। नेहा ने उन्हें पानी पिलाया। नेहा की माँ भी पास्टर जी (धार्मिक प्रचारक) को बैठा पुन: अपने काम में लग गई। नेहा की माँ को वो टुटा-फुटा सामान कुड़े से अलग करते हुए देखकर पास्टर जी बोले- सिस्टर, आप क्या करेंगी इन टुटी-फुटी चीजों का। नेहा की माँ ने कहा- कुछ नहीं पास्टर जी, बस इसे रद्दी में बेच दूंगी। पास्टर जी ने फिर से सवाल किया- क्या आप भरपेट भोजन करती हैं? हां-हां पास्टर जी, कैसी बात कर रहे हैं। पास्टर जी ने कहा- तो ये बताईए कि इस रद्दी से आपको कितने रुपए हासिल होंगे। नेहा की माँ ने कहा- ये ही कोई दस-पांच रुपए। पास्टर जी ने फिर सवाल किया-क्या इन दस-पांच रुपए से आपके बजट में कोई मुनाफा होगा। नहीं-नहीं पास्टर जी, इससे भला क्या फर्क पड़ेगा, नेहा की माँ ने जबाव दिया। पास्टर जी ने उपदेशात्मक शब्दों में कहा कि आपको तो इससे कोई फायदा नहीं होगा, लेकिन इस दुनिया में कुछ लोग ऐसे हैं जो सुबह उठते ही इन टुटी-फुटी चीजों की तलाश में सडक़ों पर घूमते हैं और ये उनकी रोजी  है। वो लोग हमारे जागने तक ऐसी चीजों को इक्कठा करते हैं और फिर इन्हें बेचकर अपने व अपने परिवार के लिए भोजन का इंतजाम करते हैं। तो आप ऐसे सामान को कुड़े में ही जाने दिया करो, ताकि वो लोग भूखे न रहें और उनकी रोजी बनी रहे। पास्टर जी द्वारा दी गई यह नसीहत मुझे हर रोज याद आती है जब मैं सुबह 5 बजे सैर के लिए जाती हूँ।

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