मैं एक पत्रकार हूँ शायद इसीलिए मुझे नहीं पता की कहानी कैसे बनती है. इसी का नतीजा रहा होगा की मेरी साहित्य में भी कुछ विशेष रूचि नहीं है. यह बात अलग है की कभी-कभी हास्य कवि सम्मेलन का हिस्सा जरुर बनता था. जिसमे अनेकों रसो पर आधारित कवितायेँ सुनना तो अच्छा लगता है लेकिन कवितायेँ पढना या कोई लेख लिखना शायद मेरे वश की बात नहीं है. जब भी मैं कोई ब्लॉग देखता तो इस बात का मलाल होता था, फिर भी मैं यह सोच कर तसल्ली कर लेता था की मेरी रूचि ही पत्रकारिता में है तो मेरा क्या कसूर है. काफी समय से मेरी यहीं कोशिश थी की किसी भी तरह मेरा ब्लॉग साहित्य से जुड़ जाएँ तो मैं भी साहित्य पर गुफ्तगू कर सकूँ. ख़ुशी की बात यह है की अब वो दिन आ गया है.
उससे ज्यादा ख़ुशी की बात यह है की अब एक नहीं मेरे दो-दो पत्रकार साथी मुझे ऐसे मिले है जो साहित्यिक गुफ्तगू में मेरा साथ देंगे. एक के कालम को नाम दिया है मीठा-कडवा सच और दूसरा कालम होगा साहित्यिक गुफ्तगू. पढने में दोनों का अपना-अपना मजा होगा. इनमे कुछ कवितायें होगी तो कुछ जिंदगी से जुड़े कडवे-मीठे सच पर लिखे लेख होंगे. साथ ही साथ साहित्य पर गुफ्तगू भी होगी. अब देखो न एक पत्रकार होने के नाते मैं घटना पर आधारित खबर तो बना सकता हूँ लेकिन मुझे यह नहीं पता था की आखिर उस घटना पर कहानी कैसे बनती है. यह बता रहे है मेरे वरिष्ठ पत्रकार साथी व् साहित्यकार कमलेश भारतीय. हाल ही में उनके कथा संकलन दरवाजा कौन खोलेगा भी प्रकाशित हुआ है.
जब मन को कोई टीस पहुंचती है और देर तक वह टीस मन में किसी घाव की तरह बनी रहती है तब कहानी बनती है। कहानियां आम आदमी की भाषा में सहज और सरल होनी चाहिएं और इनमें कथारस अवश्य होना चाहिए। श्री भारतीय का कहना है कि पत्रकारिता से घटनाओं को लेकर वे कहानियां बनाते हैं और पत्रकारिता में कहानियों जैसी भाषा अपना कर समाचारों को सरल बनाते हैं।
0 आपकी गुफ्तगू:
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