फिर हमारे साथ ही अन्नाय क्यों


दो-तीन दिन पूर्व संसद में एक नजारा देखा. मैंने क्या सभी ने देखा. जो नहीं देख पाए उन्होंने पढ़ा और सूना. शायद ही ऐसा कोई इंसान होगा जिसने आम आदमी की बात संसद तक पहुँचाने की जिम्मेदारी उठाने वाले इन नेताओ की यह नजारा देख तारीफ की होगी. वैसे तो नेताओ को वाह-वाही बहुत कम ही मिलती है लेकिन जो थोड़ी बहुत वाह-वाही करने वाले थे भी वो आज अपने को शर्मसार महसूस कर रहे होंगे. तो मुद्दा था सांसदों की वेतन वृद्धि का. बहुत लम्बे समय से उनकी यह मांग चलती आ रही थी लेकिन अब यह पास हो चुका है की सांसदों का वेतन 16 हजार से 50 हजार कर दिया जाये. बहुत ख़ुशी की बात थी की जो आदमी अपना घर छोड़ कर जनता के हक़ की बात रखने संसद तक जाता है उसको उसका हक़ मिलना भी चाहिए. लेकिन यह क्या अभी यह विधेयक रखा ही गया था की कुछ विपक्षी सांसदों ने 50 हजार को थोडा बताते हुए संसद में हो-हल्ला शुरू कर दिया.
यह वो समय था जब किसी को किसी की परवाह नहीं थी. सब शोर मचने और चिल्लाने में मशगुल थे. सब को अपनी-अपनी पड़ी थी. शोर मचने वाले सभी नेता जो चुनावो के समय आम आदमी का हक़ दिलाने की बात करते देखे जाते थे वो अब उन्ही के खून-पसीने की कमाई से अपनी जेबे भरने के प्रयास में जुटे हुए थे. कोई 50 हजार को कम बता रहा था तो कोई 80 हजार की मांग कर रहा था. मजेदार घटनाक्रम तो उस समय हुआ जब सरकार की दलील से नाराज कुछ सांसदों ने राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव को अपना प्रधानमन्त्री चुन लिया, तथा जल्द ही अपना मंत्रिमंडल बनाने की बात का स्वांग तक रच डाला. आखिरकार भाजपा व् अन्य सांसदों के बीच में आने के पश्चात् अब यह मुद्दा सुलझता नजर आ रहा है. उधर सरकार का भी कहना है की वह वेतन को 80 हजार किये जाने पर विचार करेगी. वेतन भले ही कुछ भी हो जाये लेकिन इतना जरुर है की आम जनता को इससे कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है.
अब देखो ना उसी दिन सुबह के समाचार पत्र इस बात से अटे पड़े थे की न्यायलय के आदेश के बावजूद कृषि मंत्री शरद यादव ने सड़ रहा अनाज यह कहते हुए गरीबो में बांटने से इनकार कर दिया की भले ही अनाज सड़ जाए लेकिन यह बांटा नहीं जा सकता. इस बात से कुछ दिन पूर्व ही केंद्रीय रेलमंत्री ममता बेनर्जी ने अपनी रैली में माओवादियों का समर्थन किया था. उधर दोबारा सत्ता में आने से पहले केंद्र सरकार ने विदेशो में जमा भारतीय नेताओ का काला धन वापिस लाने के बड़े-बड़े दावे किये थे. रही कामनवेल्थ गेम्स की बात तो उसमे हुआ घोटाला किसी से छुपा नहीं है. जबकि महंगाई ने देश में किस कदर तांडव रचा है यश भी सभी सांसदों को पता है. मुद्दा यह नहीं की यह सब बाते आपको या किसी को पता नहीं होगी. पहलू यह है की इतना सब कुछ होने के बाद भी वेतन बढाने की मांग कर रहे सांसदों की कान पर इन मुद्दों के लिए आज तक जूं क्यों नहीं रेंगी. क्या यह मुद्दे सिर्फ चर्चा के लिए थे.
तो जवाब होगा नहीं, ऐसा नहीं है. फर्क है तो मात्र इतना की यह मुद्दे आम जनता से जुड़े थे और वेतन सांसदों का बढना था. इसलिए किसी भी सांसद ने शरद पवार से यह नहीं पूछा की वो न्यायलय के आदेश के पश्चात् भी क्यों अनाज बांटने से माना कर रहे है. या ममता बेनर्जी का माओवादियों से क्या रिश्ता है. और तो और महंगाई मुद्दे पर राजनीति करते हुए विपक्षी पार्टियों ने भारत बंद तो किया लेकिन सरकार द्वारा पेट्रोलियम पदार्थो में की गई वृद्धि को वापिस लेने से माना करने के बावजूद क्यों संसद ठप्प नहीं की. जबकि कामनवेल्थ गेम्स के लिए हुए घोटाले में संसद में सिर्फ चर्चा ही की गई. जबकि आज जनता से लेकर नेता तक स्विस बैंक में जमा भारतीयों का काला धन वापिस लाने की बात भूल चुके है. क्या यह सरकार की वादाखिलाफी नहीं है. तो क्यों नहीं इन मुद्दों पर कभी संसद में हंगामा किया जाता. अगर यह संसद जनता से जुड़े मुद्दे संसद में नहीं उठा सकते तो इन्हें कोई हक़ नहीं है की यह वेतन वृद्धि की बात करे.

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