और जब मेरी आत्मा रोने लगी


हमारी जिंदगी में प्रतिदिन सुबह से लेकर शाम तक कई ऐसी घटनाये होती है जिनमे से कुछ तो समाचारों का रूप ले लेती है जबकि कुछ घटनाये मात्र चर्चा बन कर रह जाती है. चर्चा भी ऐसी की जो सुन कर सोचने पर मजबूर कर दे. एक भारतीय नागरिक और पत्रकार की जिंदगी को जोड़ कर अगर मैं मेरी बात करू तो कुछ घटनाये मेरे सामने होती है और कुछ की चर्चा लोग मेरे आगे करते है. इन सभी चर्चाओ में से काफी ऐसी होती है जिनको एक पत्रकार अपने समाचार पत्र-पत्रिकाओ में स्थान नहीं दिलवा सकता. लेकिन अक्सर ऐसा होता है की घटना इतनी बड़ी और दुखद होती है की
चाह कर भी कुछ नहीं किया जा सकता. अभी हाल ही में मैंने ऐसी ही एक घटना को होते देखा. कुछ नहीं कर पाया लेकिन मेरी आत्मा बहुत रोई. तभी आज उड़न तश्तरी वाले समीर लाल जी की पोस्ट पर नजर पड़ी. पोस्ट पढ़ कर आत्मा को बड़ा सुकून मिला. इसके पश्चात् यह घटना हिलोरे मार-मार दिल से बाहर आने लगी. उन्होंने सही लिखा है की ब्लॉग पर आप खुद ही पत्रकार और संपादक है. तो मैंने सोचा की घटना को सही शब्दों में पिरो कर क्यों ना आप लोगो से गुफ्तगू कर लूँ और आपकी राय जान ली जाये.
हुआ यूँ की कुछ दिनों पूर्व मैं हरियाणा रोडवेज की बस से दिल्ली से हिसार आ रहा था. दिल्ली से 25-30 वर्ष की उम्र के दो नौजवान बस में चढ़ गए. लगभग एक घंटे की यात्रा के पश्चात् जैसे ही बहादुरगढ़ आया उनमे से एक युवक बस केंडेक्टर की इजाजत से पेशाब करने क्या उतरा की केंडेक्टर और ड्राइवर का खेल शुरू हो गया. अभी सवारी वापिस आई ही नहीं थी की ड्राइवर ने बस चला दी. युवक के साथी ने बस ड्राइवर को बताया की उसका साथी केंडेक्टर की इजाजत से पेशाब करने नीचे उतरा है तो ड्राइवर ने कहा की मैं बस नहीं रोक सकता अपने साथी को कहो की भाग कर बस पकड़ सकता है तो पकड़ ले. आनन्-फानन में युवक ने साथी को फोन किया और सारा हाल ब्यान किया. एक तो रात के सात बज रहे और दूसरा किसी सवारी को बस ऐसे छोड़ दे तो लाजमी है की सवारी के भी हाथ-पाँव फूल जाते है. सरपट दौडती बस को देख युवक ने पुन ड्राइवर को एक मिनट बस रोकने का आग्रह किया तो ड्राइवर ने कहा की उस से कहो की वो ऑटो पकड़ कर आगे आ जाये. उसने फोन पर इस बारे में अपने साथी को कहा लेकिन ड्राइवर था की बस को भगाए जा रहा था.
उसकी नियत को भांप साथी युवक की आँखों में आंसू आ गए लेकिन सवारियों से खचाखच भरी बस में से किसी भी इंसान ने युवक को दिलासा तो नहीं दी उलटे ड्राइवर और केंडेक्टर सहित युवक को ही डांटने लगे. इस पर युवक ने ड्राइवर को कहा की भाई साहब आप एक मिनट बस को रोक लो मैं आखरी बार फोन कर लेता हूँ अगर वो आस-पास है तो ठीक है वरना आप मुझे भी नीचे उतार देना. इस पर सवारियों का कहना था की तुम नीचे ही उतर जाओ और अगली बस में आ जाना. इस पर भी ड्राइवर ने बस नहीं रोकी और युवक को चलती बस से उतरना पड़ा. मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे सभी सवारियों ने उस समय राहत की सांस ली हो. मेरी आत्मा रोने लगी लेकिन मैं कुछ नहीं कर पाया क्योंकि मैं अकेला था. जब दो युवको की कुछ नहीं चली तो मेरी कौन सुनता सो मैं चुपचाप देखता रहा. लेकिन यह घटना मुझे यह सोचने पर मजबूर कर गई की क्या ऐसा इन्ही युवको के साथ होता है या यह कहा जाये की पेशाब तो ऊपर वाले की देन है ना जाने कब किसे आ जाये. लेकिन शायद उस समय सभी यात्री इस बात को भूल गए थे.

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1 आपकी गुफ्तगू:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

मानवता की पतवार टूट गयी है जी!

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