आज राजनीति में बने रहने के लिए सबसे ज्यादा जरुरत पड़ती है तो मुद्दों की. अगर आज किसी पार्टी व् नेता के पास मुद्दा नहीं है तो समझो राजनीति ख़त्म. लेकिन लगता है की आज देश के किसी भी राजनितिक दल व् नेता के पास जनहित के लिए तो दूर जनता को बताने व् समझाने के लिए कुछ बचा ही नहीं है. यही कारण है की कहीं ना कहीं जाकर जनसभाओ, चुनावी दौरों व् पत्रकारवार्ताओं में बिजली और पानी ही एक ऐसा मुद्दा बचा है जिस पर नेता खुल कर भाषण दे सकते है. इसके अतिरिक्त अगर जनता को आज कोई मुद्दा लुभा रहा है तो वो है भ्रष्टाचार. भले ही जनता राजनीति व् नेताओ को रात-दिन कोसती हो लेकिन भ्रष्टाचार का मुद्दा आते ही उसको वहीँ नेता अच्छा लगता है जो भ्रष्टाचार पर लम्बा-चौड़ा भाषण दे रहा है.
इतने से भी अगर नेताओ का पेट नहीं भरता और उसको लगता है की अन्य राजनितिक दल व् नेता पर कटाक्ष करना अभी बाकी है तो मुद्दा बचता है परिवारवाद का. ऐसे में वह यह बात भूल जाता है की उसकी पार्टी में या स्वयं उसने राजनीति में भले ही परिवारवाद को कितना ही बढ़ावा दिया हो उसका कोई जिक्र नहीं लेकिन दूसरों ने क्या किया इसका कोरा चिठठा खोलने से आज कोई भी नेता एक- दूसरे से पीछे नहीं रहना चाहता. मजेदार बात तो यह है की आज हर राजनीतिक दल में परिवारवाद है और हर नेता इसको बढ़ावा देने में बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहा है. फिर भले ही वह गांधी परिवार हो या हरियाणा की राजनीति के सरताज तीनो लाल परिवार. जबकि आज प्रदेश के मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा भी इससे अछूते नहीं है.
जबकि देश के अन्य प्रदेशों की बात की जाए तो ऐसे नामों की एक लम्बी फेहरिस्त है जिन्होंने राजनीति में परिवारवाद को बढ़ावा देने में अपना भरपूर सहयोग दिया है. फिर भले ही वो मुख्यमंत्री, मंत्री, नेता या राजनेता ही क्यों ना हो. इसके पीछे सबके अपने-अपने तर्क भी हो सकते है. कोई कहेगा की बेटा बाप की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ा रहा है तो कोई कहेगा की जनता की भावना के अनुरूप किसी नेता के पुत्र-पुत्री व् पत्नी को चुनाव की टिकट दी गई है. जबकि इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता की राजनीतिक दल किसी नेता की मृत्युपरांत उसके परिवार के किसी जन को चुनावी मैदान में उतर कर जनता के वोट पाना चाहता है. बावजूद इसके आज राजनीति में बढ़ता परिवारवाद नेताओं का मुंह चिढ़ा रहा है.
अब आदमपुर व् रतिया विधानसभा उपचुनाव को ही देख लो. दोनों ही चुनाव में परिवारवाद इस कदर हावी है की किसी भी नेता से कुछ बोलते नहीं बन रहा है. हिसार के सांसद व् पूर्व मुख्यमंत्री भजनलाल की मृत्युपरांत रिक्त हुई हिसार लोकसभा सिट के उपचुनाव में आदमपुर से उनके विधायक पुत्र कुलदीप बिश्नोई हिसार से सांसद बन गए. चलो वो तो राजनीति में पुराने है लेकिन ऐसे में आदमपुर उपचुनाव में जहाँ उनकी पत्नी रेणुका बिश्नोई को पहली बार चुनावी मैदान में उतरा गया है वहीँ रतिया से इनलो विधायक के मरणोपरांत उनकी पत्नी इनलो की टिकट पर चुनावी समर में है. जबकि कांग्रेस भी आदमपुर से इनलो की टिकट पर चुनाव लड़ चुके कांग्रेसी विधायक संपत सिंह के पुत्र को टिकट देना चाहती थी.
अगर देश की बात की जाएँ तो ऐसा कोई विरला ही राजनीतिक दल मिलेगा जिसने परिवारवाद को बढ़ावा नहीं दिया हो. कश्मीर से कन्याकुमारी व् महाराष्ट्र से आसाम तक प्रत्येक मुख्यमंत्री परिवारवाद को बढाने का गुनहगार है. ऐसे में मुद्दों की तलाश में रहने वाले राजनीतिक दल व् नेताओं को परिवादवाद पर भाषण देना भारतीय राजनीति में मुंह चिढाने के सामान लगता है.
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जबकि देश के अन्य प्रदेशों की बात की जाए तो ऐसे नामों की एक लम्बी फेहरिस्त है जिन्होंने राजनीति में परिवारवाद को बढ़ावा देने में अपना भरपूर सहयोग दिया है. फिर भले ही वो मुख्यमंत्री, मंत्री, नेता या राजनेता ही क्यों ना हो. इसके पीछे सबके अपने-अपने तर्क भी हो सकते है. कोई कहेगा की बेटा बाप की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ा रहा है तो कोई कहेगा की जनता की भावना के अनुरूप किसी नेता के पुत्र-पुत्री व् पत्नी को चुनाव की टिकट दी गई है. जबकि इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता की राजनीतिक दल किसी नेता की मृत्युपरांत उसके परिवार के किसी जन को चुनावी मैदान में उतर कर जनता के वोट पाना चाहता है. बावजूद इसके आज राजनीति में बढ़ता परिवारवाद नेताओं का मुंह चिढ़ा रहा है.
अब आदमपुर व् रतिया विधानसभा उपचुनाव को ही देख लो. दोनों ही चुनाव में परिवारवाद इस कदर हावी है की किसी भी नेता से कुछ बोलते नहीं बन रहा है. हिसार के सांसद व् पूर्व मुख्यमंत्री भजनलाल की मृत्युपरांत रिक्त हुई हिसार लोकसभा सिट के उपचुनाव में आदमपुर से उनके विधायक पुत्र कुलदीप बिश्नोई हिसार से सांसद बन गए. चलो वो तो राजनीति में पुराने है लेकिन ऐसे में आदमपुर उपचुनाव में जहाँ उनकी पत्नी रेणुका बिश्नोई को पहली बार चुनावी मैदान में उतरा गया है वहीँ रतिया से इनलो विधायक के मरणोपरांत उनकी पत्नी इनलो की टिकट पर चुनावी समर में है. जबकि कांग्रेस भी आदमपुर से इनलो की टिकट पर चुनाव लड़ चुके कांग्रेसी विधायक संपत सिंह के पुत्र को टिकट देना चाहती थी.
अगर देश की बात की जाएँ तो ऐसा कोई विरला ही राजनीतिक दल मिलेगा जिसने परिवारवाद को बढ़ावा नहीं दिया हो. कश्मीर से कन्याकुमारी व् महाराष्ट्र से आसाम तक प्रत्येक मुख्यमंत्री परिवारवाद को बढाने का गुनहगार है. ऐसे में मुद्दों की तलाश में रहने वाले राजनीतिक दल व् नेताओं को परिवादवाद पर भाषण देना भारतीय राजनीति में मुंह चिढाने के सामान लगता है.
2 आपकी गुफ्तगू:
Corruption ka ek bada karan yeh bhi hai...
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ये हिंदुस्तान है भाई हिंदुस्तान
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