अभी कल (शनिवार) की ही तो बात है. हम दो लोगो में गुफ्तगू चल रही थी की महात्मा गाँधी अहिंसावादी थे. वो कहते थे की अगर कोई आपके एक गाल पर एक तमाचा जड़ दें तो दूसरा गाल आगे कर देना चाहिए. एक बालक के साथ ऐसा हो भी गया. किसी ने उसको एक तमाचा जड़ दिया तो उसने दूसरा गाल भी आगे कर दिया. सामने वाले ने दूसरे गाल पर भी तमाचा जड़ दिया. बालक सोचने लगा की अब क्या करें. वो भाग कर दीवार के पीछे गया और अपने पिता की बन्दुक निकाल कर लाया और तमाचा जड़ने वाले पर तान दी. यह देख वो सकपकाया और बोला की अभी तो तुम बोल रहे थे की तुम अहिंसावादी हो तो उसने तपाक से जवाब दिया की मैंने महात्मा गाँधी जी की पार्टी बदल ली है और अब मै सुभाष चन्द्र बोश की पार्टी का सदस्य हूँ. लेकिन पता नहीं क्यों आज भी मेरा देश अपनी पुरानी नीतियों पर ही चल रहा है. ना वो पार्टी बदल रहा है और ना ही कुछ कर रहा है. यहाँ यह गुफ्तगू इसलिए जरुरी थी की अभी हाल ही में अमेरिका के राष्ट्र्पाती बराक ओबामा भारत यात्रा पर आये थे. भारत के लिए वो जैसे आये थे वैसे ही वापिस भी चल दिए, और भारत के हाथ कुछ नहीं लगा.
अमेरिका के राष्ट्रपति की यह कोई पहली भारत यात्रा नहीं थी. इससे पहले भी भारत को अमेरिका और पकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपतियों द्वारा तमाचे पड़ चुके है. लेकिन मेरे देश के नेता है की दोनों गाल पर खाने के पश्चात भी पार्टी नहीं बदल रहे है. अब देखो ना कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए पहले दिल्ली को सजाया गया. माना की यह देश की आन-बान-शान का सवाल था. भले ही नेताओ ने खेलो के आयोजन में जम कर चांदी कुटी हो लेकिन जैसे-तैसे कर कॉमनवेल्थ गेम्स का समापन कर दिया गया. दिल्ली को दुल्हन की तरह सजाया गया. हर उस चीज को नया रूप दिया गया जिससे आज तक दिल्ली का आम आदमी महरूम था. दिल्ली की साज-सज्जा, आवभगत और खेलो के आयोजन से खुश हो कर विदेशी मेहमान हमसे रुखसत हो गए. लेकिन एक दर्द आज भी राजधानी वाशियों के दिल में है की अरबो रूपए खर्च कर जैसा दिल्ली को मेहमानों के लिए बनाया गया था क्या वैसा उनके लिए बना नहीं रह सकता. लेकिन यहाँ सब अपने और मेहमानों के लिए किया जाता है जनता की भलाई की किस को पड़ी है. दिल्ली के बाद बारी थी दिल सजने की.
अभी नेताओ ने कॉमनवेल्थ गेम्स समाप्त होने पर राहत की सांस ही ली थी की अमेरिका के राष्ट्रपति की भारत यात्रा का समय नजदीक आने लगा. इससे पहले भी बिल क्लिंटन और जार्ज बुश भारत यात्रा पर आ चुके है. जैसे ही यह समाचार देश के नेताओ को मिला वो भ्रष्टाचार और घोटालो से ऊपर उठ कर अपने दिल को सजाने में जुट गए. देश की संस्कृति के अनुरूप भारत में मेहमानों को भगवान् का दर्जा दिया जाता है कुछ उसी पद्धति पर चलते हुए पूर्व राष्ट्रपतियों की तरह बराक ओबामा का भी भव्य स्वागत किया गया. बराक ओबामा दो पार्टियों के सदस्य की भांति भारत में आये लेकिन भारतीय नेता सिर्फ उनके आगे-पीछे ही रहे. प्रधानमन्त्री, सोनिया गाँधी से लेकर विपक्ष तक सिर्फ उनकी बाते सुनने में मशगूल रहा वही ओबामा समय-समय पर अपनी रणनीति दिखाते रहे. एक बारगी ऐसा लगा जैसे वो एक व्यापारी की भांति भारत में आये और अपना काम साध कर वापिस हो लिए. कुल मिला कर भारतीय नेताओ ने भले ही अपने दिल को कितना ही सजाया हो लेकिन उनके हाथ कुछ नहीं लगा. पाकिस्तान पर जो थोडा बहुत वो बोले थे वापिस जाकर उस पर भी सफाई आ गई.
अब बारी फिर एक विदेशी मेहमान के भारत आने की थी. मिडिया से लेकर आम जनता फिर पलके बिछाए खड़ी हो गई. आखिर कार उनके हाथ क्या लगा. मिडिया वालो ने अपने कैमरे तुडवाये सो तुडवाये जनता ने पुलिस के डंडे खाए वो अलग से. शायद अब तक आप समझ गए होंगे की यहाँ किसकी बात हो रही है. जी हां आप सही समझ रहे है. पामेला एंडरसन की. लाखो रुपया देकर तो उनको भारत बुलाया गया उस पर भी देशवाशियो को उनकी एक झलक तक नहीं मिली. अब तो ऐसा लगने लगा है की हम सिर्फ सजने के लिए ही रह गए है. लेकिन यहाँ फिर एक बात याद आती है की सजती तो दुल्हन भी लेकिन उसकी जिंदगी में वो समय जरुर आता है जब उसका सजना साकार हो जाता है. तो क्या कभी हमारा सजना साकार होगा या फिर हम हमेशा ऐसे ही किन्नरों की तरह सजते रहेंगे.
पहले दिल्ली सजा फिर दिल और अब....
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1 आपकी गुफ्तगू:
आपका बहुत - बहुत स्वागत. हमारी शुभकामनायें सदैव आपके साथ हैं.
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