भारत देश तमाशबीनों का देश है। यहां जनता तमाशे देखना बहुत पसंद करती है। पिछले दिनों देश का सबसे बड़ा तमाशा जनता ने देखा और उसमें भागीदारी भी की। 16 अगस्त से अन्ना हजारे भ्रष्टाचार के खिलाफ जनलोकपाल बिल लाने की मांग पर अनशन पर बैठे। भ्रष्टाचार को मिटाने की उनकी मुहिम को बहुत से लोगों ने गंभीरता से लिया, लेकिन अधिकतर जनता अन्ना के साथ इसलिए जुड़ी, क्योंकि उसे यह एक बहुत बड़ा तमाशा नजर आया। 24 घंटे टीवी पर दर्जनों न्यूज चैनल्स पर लाइव कवरेज किसी बहुत बड़े तमाशे के समान थी। अन्ना व उनकी टीम ने तो इसे आंदोलन की तरह चलाया लेकिन जनता ने इसे तमाशे की तरह लिया। सरकार ने आंदोलन खत्म कराने के लिए अन्ना हजारे की मांगों को मानने का आश्वासन दिया और उनका अनशन खत्म हो गया। अन्ना का अनशन खत्म होते ही जनता के लिए तमाशा खत्म हो गया। अब अन्ना के आंदोलन के साथ जुडऩे वाले लोग कम नजर आते हैं। राजनीतिक पार्टियां अपनी राजनीतिक फायदे के लिए जनता के साथ इस तमाशे में शामिल हुई। तमाशा खत्म होते ही सब अपने-अपने काम पर लग गए। कहीं कोई बदलाव नजर नहीं आया। अन्ना के आंदोलन के दौरान भ्रष्टाचारियों ने कुछ हद तक जनता को तंग नहीं किया लेकिन आंदोलन खत्म होते ही रिश्वत लेने व देने का खेल फिर से पहले की तरफ चल पड़ा।
जनता यदि इस आंदोलन को तमाशा नहीं समझती तो इस आंदोलन को अप्रत्यक्ष रूप से आगे बढ़ाया जाता। क्यों जनता सरकारी दफ्तरों में चल रहे भ्रष्टाचार को सामने नहीं लाती, क्यों रिश्वत मांगने का विरोध नहीं कर पाती। क्यों इस आंदोलन में कोई सरकारी अधिकारी या कर्मचारी शामिल नहीं हुआ। अन्ना के आंदोलन को जनता ने तमाशा ही समझा और 12 दिन तक चले इस तमाशे के बाद सभी ने तालियां बजाई, जश्न मनाया और अपने-अपने रास्ते हो लिए। इस देश में अगर भ्रष्टाचार को मिटाना है और बदलाव लाना है तो इस आंदोलन को आंदोलन के तौर पर ही देखा जाना चाहिए और आगे बढ़ाना चाहिए, न कि तमाशा समझ कर भुला दिया जाना चाहिए।
1 आपकी गुफ्तगू:
जनता यदि इस आंदोलन को तमाशा नहीं समझती तो इस आंदोलन को अप्रत्यक्ष रूप से आगे बढ़ाया जाता। क्यों जनता सरकारी दफ्तरों में चल रहे भ्रष्टाचार को सामने नहीं लाती, क्यों रिश्वत मांगने का विरोध नहीं कर पाती।
Sahmat hun!
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